"नई सदी का सच: ठेका मजदूरी और इंसानियत का कत्ल"

हिजड़ा और आउटसोर्सिंग कर्मचारी: अपमान की दो तस्वीरें
समानता के नारों के पीछे छुपा भेदभाव
आज हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ भाषणों में समानता और न्याय की बातें होती हैं, लेकिन हकीकत में अपमान, तिरस्कार और भेदभाव की तस्वीरें हर गली, हर दफ्तर, हर नुक्कड़ पर बिखरी पड़ी हैं। हिजड़ा समुदाय और आउटसोर्सिंग कर्मचारी — दोनों आज भी हमारे समाज के ऐसे सवाल हैं, जिनसे सत्ता, समाज और व्यवस्था सब मुँह मोड़ लेते हैं।
सरकार और निजी सचिवों का खेल: एक सुनियोजित साजिश
सरकारी दफ्तरों में स्थायी नौकरियाँ खत्म कर, सुनियोजित ढंग से आउटसोर्सिंग थोपी जा रही है। यह सुधार नहीं, बल्कि एक गहरी साजिश है — सरकारें और उनके निजी सचिव ऐसी व्यवस्था बनाते हैं कि गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे ठेके पर रखे जाएं। उनसे जानवरों की तरह काम लिया जाए, लेकिन न अधिकार दिया जाए, न इज्जत और न भविष्य। फाइलें खिसकती हैं, दफ्तर चलते हैं, लेकिन इन मेहनतकश कर्मचारियों का नाम तक इतिहास में नहीं दर्ज होता।
समाज का तिरस्कार: 'ठेके वाला' एक गाली बन गया
जिस तरह समाज हिजड़ा समुदाय को हिकारत से देखता है, उसी तरह आज का आउटसोर्सिंग कर्मचारी भी केवल एक "ठेके वाला" बनकर रह गया है।
उसकी मेहनत, उसकी योग्यता, उसका संघर्ष सब कुछ बस एक ठप्पे में समेट दिया जाता है — "यह तो ठेके वाला है।"
यहाँ तक कि उनके अपने परिवार — माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे — भी उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं।
मानो वह अपनी किस्मत का अपराधी हो, जिसने सपनों के साथ-साथ परिवार का सम्मान भी डुबो दिया हो।
हिजड़ा लड़ता है, आउटसोर्सिंग कर्मचारी हार जाता है
हिजड़े अपमान सहते हुए भी अपनी कला, अपने हुनर, अपने जज़्बे से जीते हैं।
वे अपने समाज के लिए कुछ कर जाते हैं, सम्मान के लिए जंग लड़ते हैं।
लेकिन बेचारा आउटसोर्सिंग कर्मचारी?
वह धीरे-धीरे हारता है — न खुद के लिए लड़ पाता है, न अपने परिवार के लिए।
सिस्टम की गंदगी में वह घुटता है, दबता है, मिट जाता है।
मौत के बाद भी तिरस्कार
हिजड़ा जब मरता है, तो उसे चुपचाप, रात के अंधेरे में जूते-चप्पलों से मारकर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है।
आउटसोर्सिंग कर्मचारी जब मरता है, तो उसके अपने लोग तक उसे ताने मारते हैं —
"देखो, कुछ छोड़कर नहीं गया। सबको भिखारी बना गया।"
समाज उसकी लाश पर भी थूकता है।
उसकी सारी मेहनत, त्याग और संघर्ष धूल में मिला दिए जाते हैं।
क्या यही है नया भारत?
क्या यही है वो नया भारत, जिसके सपनों को हर रोज़ भाषणों में बेचा जाता है?
क्या नया भारत बस आंकड़ों और चमकते रिपोर्ट कार्डों तक सीमित रह जाएगा, जबकि जमीनी सच्चाई में इंसानियत की लाशें बिछी होंगी?
आउटसोर्सिंग कर्मचारियों और हिजड़ा समुदाय के सम्मान के लिए क्या हमारे पास इतना भी साहस नहीं बचा?
अंतिम चेतावनी: आज मेरे साथ, कल तुम्हारे साथ
याद रखो —
आज जो आग मेरे घर में लगी है, कल तुम्हारे दरवाजे पर भी पहुंचेगी।
आज मेरे बेटे को 'ठेके वाला' कहकर तिरस्कृत किया जा रहा है, कल तुम्हारे बेटे को भी यही गाली सुननी पड़ेगी।
तब शायद तुम इस दर्द को समझोगे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
आने वाली पीढ़ियाँ जब ठेके की गुलामी में पलेंगी, जब पढ़े-लिखे नौजवान गालियाँ खाते फिरेंगे, तब वे अपने बाप-दादाओं को ही दोष देंगे —
"जब वक़्त था लड़ने का, तब तुम चुप क्यों रहे?"
समाज को अब इस अभिशाप से लड़ना होगा
अब लड़ना जरूरी है।
अब चुप रहना गुनाह है।
अगर अब भी हम चुप रहे, तो यह अभिशाप पूरे समाज को लील जाएगा।
हर गली, हर घर 'ठेके वालों' की बस्ती बन जाएगी — बिना इज्जत, बिना अधिकार, बिना भविष्य के इंसानों की दुनिया।
चाहो तो आज लड़ो — या फिर कल अपनी औलादों से गालियाँ खाने के लिए तैयार रहो।
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